रिपोर्ट: लक्ष्मण बिष्ट : लोहाघाट :श्रद्धा और कृतज्ञता का पावन पर्व है पितृ पक्ष-शशांक पाण्डेय*

Laxman Singh Bisht
Tue, Sep 9, 2025
.श्रद्धा और कृतज्ञता का पावन पर्व है पितृ पक्ष-शशांक पाण्डेयभारतीय संस्कृति की पहचान उसकी गहन आध्यात्मिकता और समृद्ध परंपराओं से होती है। यहाँ जीवन केवल वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि अतीत और भविष्य की निरंतर कड़ी के रूप में देखा जाता है। इस संस्कृति में देवताओं के साथ-साथ पूर्वजों को भी देवतुल्य माना गया है। यही कारण है कि भारत में पितृ पक्ष का पर्व मनाया जाता है। पितृ पक्ष वह अवसर है जब हम अपने पितरों को याद करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा और आभार व्यक्त करते हैं तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए विशेष कर्मकांड करते हैं। यह पर्व भाद्रपद पूर्णिमा से आरंभ होकर आश्विन अमावस्या तक पंद्रह दिनों तक चलता है और इस अवधि को श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है।पौराणिक कथाओं में पितृ पक्ष का महत्व अत्यंत मार्मिक ढंग से वर्णित है। महाभारत काल में दानवीर कर्ण का प्रसंग इसका उदाहरण है। कर्ण ने जीवन भर दान-पुण्य तो बहुत किया, लेकिन उन्होंने अपने पूर्वजों का कभी श्राद्ध नहीं किया। मृत्यु के पश्चात जब वे स्वर्ग पहुंचे तो उन्हें भोजन के स्थान पर केवल रत्न और स्वर्ण मिले। भगवान ने उन्हें समझाया कि जीवन में उन्होंने सबको दिया पर अपने पितरों के प्रति कर्तव्य निभाना भूल गए। तब कर्ण ने पृथ्वी पर लौटकर श्राद्ध करने की इच्छा की और तभी से पितृ पक्ष की परंपरा और भी दृढ़ हो गई। गरुड़ पुराण, मनुस्मृति और महाभारत जैसे ग्रंथों में इस पर्व का उल्लेख मिलता है। इनमें कहा गया है कि पितरों का आशीर्वाद ही वंश की समृद्धि और जीवन की सफलता का आधार है।पितृ पक्ष के दिनों में प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनने और श्रद्धापूर्वक तर्पण करने की परंपरा है। तर्पण में तिल, जल और कुशा का विशेष महत्व है।
इसके साथ ही पिंडदान भी किया जाता है, जिसमें चावल, जौ और तिल से बने पिंड पितरों को अर्पित किए जाते हैं। इन दिनों ब्राह्मणों को भोजन कराना और उन्हें दान देना अनिवार्य माना गया है। यह विश्वास है कि ब्राह्मणों और भूखों को भोजन कराने से पितरों की आत्मा तृप्त होती है।पितृ पक्ष के दौरान जीवन शैली भी पूर्णतया सात्विक और अनुशासित रखी जाती है। मांसाहार, शराब और तामसिक भोजन से परहेज किया जाता है। हिंसा, छल, क्रोध और अपमानजनक आचरण को वर्जित माना गया है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें दान और परोपकार की शिक्षा देता है। गरीबों को अन्न, वस्त्र और धन देना इस समय पुण्यकारी माना जाता है। इस प्रकार पितृ पक्ष मानव समाज में सहानुभूति, सेवा और करुणा की भावना को जीवित रखता है।भारतीय समाज में पितृ पक्ष केवल कर्मकांड तक सीमित नहीं है। गाँवों और कस्बों में इन दिनों विशेष आयोजन होते हैं। गंगा, यमुना, सरयू, गोमती और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों के तट पर असंख्य लोग एकत्र होकर पितरों का पिंडदान करते हैं। गयाजी, गया में पितृ श्राद्ध का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि गया में श्राद्ध करने से पीढ़ियों के पितर तृप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि भारत के कोने-कोने से लोग पितृ पक्ष में गया जाकर श्राद्ध करना अपना सबसे बड़ा धार्मिक कर्तव्य मानते हैं।पितृ पक्ष का महत्व केवल धार्मिक आस्था तक ही सीमित नहीं है, यह हमें जीवन के गहरे सत्य का बोध कराता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि मनुष्य केवल अपने लिए नहीं जीता, बल्कि उसका अस्तित्व उसकी वंश परंपरा से जुड़ा होता है। जैसे वृक्ष अपनी जड़ों से पोषण पाता है, वैसे ही मनुष्य भी अपने पूर्वजों की स्मृति और संस्कारों से शक्ति प्राप्त करता है। जब हम अपने पितरों को याद करते हैं तो हम केवल एक परंपरा का निर्वाह नहीं करते, बल्कि अपनी आत्मा को विनम्रता, कृतज्ञता और श्रद्धा से भरते हैं।आधुनिक जीवन की आपाधापी में लोग अक्सर अपने अतीत को भूल जाते हैं। नए-नए साधनों और भौतिक सुख-सुविधाओं में खोकर वे यह मान बैठते हैं कि सब कुछ उनकी अपनी मेहनत का परिणाम है। किंतु पितृ पक्ष हमें यह याद दिलाता है कि हमारे जीवन की नींव हमारे पूर्वजों के त्याग, तपस्या और संस्कारों पर टिकी हुई है। उनकी मेहनत और मूल्यों के बिना हम आज यह जीवन नहीं जी पाते। इस दृष्टि से पितृ पक्ष आत्मनिरीक्षण और आत्मजागरण का भी पर्व है।साहित्य और लोककथाओं में भी पितृ पक्ष का उल्लेख मिलता है। कई कवियों ने इसे पूर्वजों की स्मृति और आशीर्वाद का पर्व कहा है। लोकविश्वास है कि इस काल में पितर धरती पर आते हैं और अपने वंशजों के तर्पण की प्रतीक्षा करते हैं। यदि उन्हें श्रद्धा से याद किया जाए तो वे तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं और यदि उनकी उपेक्षा की जाए तो जीवन में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि साधारण गृहस्थ से लेकर बड़े-बड़े राजा-महाराजा तक इस पर्व को पूरे मनोयोग से निभाते आए हैं।पितृ पक्ष भारतीय संस्कृति की उस अनमोल परंपरा का प्रतीक है जो हमें हमारी जड़ों की ओर ले जाती है। यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि पूर्वजों के प्रति आभार प्रकट करने का माध्यम है। यह हमें यह सिखाता है कि जीवन की सार्थकता केवल वर्तमान में नहीं बल्कि अतीत और भविष्य की निरंतरता में है। पितृ पक्ष हमें विनम्रता, कृतज्ञता और सेवा का संदेश देता है और यह विश्वास भी जगाता है कि जैसे हम अपने पितरों को याद करते हैं वैसे ही आने वाली पीढ़ियाँ हमें भी याद करेंगी। यही कारण है कि पितृ पक्ष को भारतीय संस्कृति में सबसे पवित्र और अर्थपूर्ण पर्वों में स्थान प्राप्त है।
(लेखक शशांक पाण्डेय लोहाघाट निवासी है)